Tuesday, June 15, 2010

बदलती सोच.......

यह मानने से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में विकास हुआ है। और भारत विकासशील देश है यहाँ अपार संभावनाएं भी हैं। लेकिन इस विकास के पीछे देखें तो हमने अपनी मूल पहचान और अपना अस्तित्व को भी मिटाने में कोई कमी नहीं की है। सुबह के बाद शाम का होना दुख के बाद सुख, इसी तरह प्राचीनता के बाद नवीनता आना यह एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन अपने अस्तित्व को बचाए रखना भी हमारा ध्येय होना चाहिए। आज लोगों की सोच बदलती जा रही है, इस वैश्वीकरण के युग में हरेक आगे बढ़ने की सोच रहा है, किसी भी प्रकार से, किसी भी तरह है। सबकी सोच में परिवर्तन हुआ है रहन-सहन से लेकर खान पान तक पूरा ही बदलता जा रहा है। बदलते रिश्ते, बदलता परिदृश्य, बढ़ती दूरियाँ..... सबकुछ धीरे धीरे बदलता जा रहा है। इन सबके बावजूद हम अपनी पुरानी धरोहर को नए रूप में संजोने की कोशिश करते हैं जबकि वह पहले से ही विद्यमान है। एकता से अखंडता की ओर लोग जाते जा रहे हैं भारत में संयुक्त परिवारों का विघटन होता जा रहा है। इन सबके पीछे सिर्फ और सिर्फ आगे बढ़ने की होड़......

लेकिन गरीब तो कल भी गरीब था और आज भी गरीब ही है,

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