Thursday, June 24, 2010

आखिर कौन सोचेगा हिंदी के बारे में ! ! !

भारत सरकार द्वारा तो हिंदी को सिर्फ एक अमलीजामा पहना दिया गया है। केवल हर तिमाही में रिपोर्ट मंगाना और उसी रिपोर्ट के आधार पर पुरस्कार का वितरण करना आदि लेकिन क्या इन सबसे हिंदी का भला हो पा रहा है ? इस सबके वाबजूद इसे केवल लोग औपचारिकता ही मानते हैं पुराने आंकड़ो के अनुसार प्रत्येक तिमाही में आंकड़ों को आगे पीछे कर तिमाही की खाना पूर्ति के साथ हिंदी की भी खाना पूर्ति हो जाती है। भारत सरकार के उद्यमों में चाहे बैंक या किसी अन्य उपक्रम में हिंदी के साथ लगभग यही हो रहा है। और यही हाल चलता रहेगा जबतक कि ऊपर बैठे लोग इसे कार्यान्वित नहीं करेंगे ! इसके पीछे एक कारण जो नजर आता है वो है रोजगार का लोगों को हिंदी के नाम पर रोजगार मिल गया लेकिन वे हिंदी के प्रति वफादार नहीं बने। पुराने भी होगए हैं तो सीनियर कहलाने में उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है बजाय हिंदी के काम में दिलचस्पी लेने के। नये भर्ती हुए लोगों से कुछ उम्मीद भी की जाए तो पुराने लोगों को सिस्टम पूरा बदला-बदला सा लगता है। वे चाहते हैं जैसे परिपाटी चल रही थी वैसी ही चलती रहे, तो जो भी नये लोगों से उम्मीद थी वो भी खत्म होने की कगार पर हो गई। यही सब चलता रहा तो आखिर कौन सोचेगा.........

खासकर सरकारी बैंकों में कहीं कहीं यह पूरी तरह से लागू होता है। जरा सोचिए आखिर क्या होगा........

Tuesday, June 15, 2010

बदलती सोच.......

यह मानने से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत में विकास हुआ है। और भारत विकासशील देश है यहाँ अपार संभावनाएं भी हैं। लेकिन इस विकास के पीछे देखें तो हमने अपनी मूल पहचान और अपना अस्तित्व को भी मिटाने में कोई कमी नहीं की है। सुबह के बाद शाम का होना दुख के बाद सुख, इसी तरह प्राचीनता के बाद नवीनता आना यह एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन अपने अस्तित्व को बचाए रखना भी हमारा ध्येय होना चाहिए। आज लोगों की सोच बदलती जा रही है, इस वैश्वीकरण के युग में हरेक आगे बढ़ने की सोच रहा है, किसी भी प्रकार से, किसी भी तरह है। सबकी सोच में परिवर्तन हुआ है रहन-सहन से लेकर खान पान तक पूरा ही बदलता जा रहा है। बदलते रिश्ते, बदलता परिदृश्य, बढ़ती दूरियाँ..... सबकुछ धीरे धीरे बदलता जा रहा है। इन सबके बावजूद हम अपनी पुरानी धरोहर को नए रूप में संजोने की कोशिश करते हैं जबकि वह पहले से ही विद्यमान है। एकता से अखंडता की ओर लोग जाते जा रहे हैं भारत में संयुक्त परिवारों का विघटन होता जा रहा है। इन सबके पीछे सिर्फ और सिर्फ आगे बढ़ने की होड़......

लेकिन गरीब तो कल भी गरीब था और आज भी गरीब ही है,