भारत सरकार द्वारा तो हिंदी को सिर्फ एक अमलीजामा पहना दिया गया है। केवल हर तिमाही में रिपोर्ट मंगाना और उसी रिपोर्ट के आधार पर पुरस्कार का वितरण करना आदि लेकिन क्या इन सबसे हिंदी का भला हो पा रहा है ? इस सबके वाबजूद इसे केवल लोग औपचारिकता ही मानते हैं पुराने आंकड़ो के अनुसार प्रत्येक तिमाही में आंकड़ों को आगे पीछे कर तिमाही की खाना पूर्ति के साथ हिंदी की भी खाना पूर्ति हो जाती है। भारत सरकार के उद्यमों में चाहे बैंक या किसी अन्य उपक्रम में हिंदी के साथ लगभग यही हो रहा है। और यही हाल चलता रहेगा जबतक कि ऊपर बैठे लोग इसे कार्यान्वित नहीं करेंगे ! इसके पीछे एक कारण जो नजर आता है वो है रोजगार का लोगों को हिंदी के नाम पर रोजगार मिल गया लेकिन वे हिंदी के प्रति वफादार नहीं बने। पुराने भी होगए हैं तो सीनियर कहलाने में उन्हें ज्यादा अच्छा लगता है बजाय हिंदी के काम में दिलचस्पी लेने के। नये भर्ती हुए लोगों से कुछ उम्मीद भी की जाए तो पुराने लोगों को सिस्टम पूरा बदला-बदला सा लगता है। वे चाहते हैं जैसे परिपाटी चल रही थी वैसी ही चलती रहे, तो जो भी नये लोगों से उम्मीद थी वो भी खत्म होने की कगार पर हो गई। यही सब चलता रहा तो आखिर कौन सोचेगा.........
खासकर सरकारी बैंकों में कहीं कहीं यह पूरी तरह से लागू होता है। जरा सोचिए आखिर क्या होगा........
खासकर सरकारी बैंकों में कहीं कहीं यह पूरी तरह से लागू होता है। जरा सोचिए आखिर क्या होगा........
सही कह रहे हैं आप. यदि हम सभी नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा !
ReplyDeleteसोनिया गाँधी या मनमोहन सिंह सोचेंगे !
इन्हें इस बात से क्या !
आपका लेख मुझे अच्छा लगा, मैंने आपके और भी लेख पढ़े हिंदी के प्रति आपके प्रेम को नमन, आपको बताना चाहूंगा कि मैंने इस दिशा में एक छोटा सा प्रयाश किया है, ओपन पत्रिका के रूप में यदि आप भी अपने लेख देंगे तो हम क्रांति ला सकते हैं, और जानकारी नीचे दिए लिंक पर है, उम्मीद है आप अपना योगदान देंगे-
ReplyDeleteRead in English
हिंदी में पढ़ें
राजभाषा के प्रयोग-प्रसार के प्रति भारतीय रेल पूरी तरह सजग, सतर्क एवं जागरूक है. आज हमारे आरक्षण चार्ट तक द्विभाषी तैयार हो रहे हैं.फिर भी ऊपर बैठे तंत्र को अभी काफी कुछ करना बाकी है.
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